ऑटिज़्म (Autism) एक ऐसी मानसिक बीमारी है जो किसी के बोलने, बात करने,हरकतों में दिखाई देती है। इससे पीड़ित लोग कम्युनिकेशन में कमज़ोर होते हैं,उनमें आत्मविश्वास की कमी होती है और कई बार ट्रिगर्स की वजह से चिढ़ और गुस्सा भी देखा गया है।
भारत में रोगों के प्रति जागरूकता का स्तर आप इस बात से जांच सकते हैं कि आज भी दिमाग के किसी भी रोग से पीड़ित लोगों के लिए ज्यादातर लोगों के पास सिर्फ एक ही शब्द है- पागल। बदलती दुनिया अलग-अलग रोगों के नाम जरूर चीन्हने की कोशिश में है, लेकिन पानी बहुत बह चुका है, जिसे सूखने में वक्त लगेगा।
कुछ ऐसा ही रोग है ऑटिज्म, जो लोगों के जागरूक न होने के कारण पनपता जा रहा है। भारत में 68 में से 1 बच्चा इस रोग का शिकार है। आटिज्म इन इंडिया की इस पर विस्तार में रिपोर्ट है। क्या है ऑटिज्म और क्या हैं इसके लक्षण और इसका इलाज? आज हम इस पर ही बात करने वाले हैं।
ऑटिज़्म इलाज़ से ज्यादा आचरण पर निर्भर होता है। यह एक दिमागी बीमारी है जिसमें आत्मविश्वास की कमी,गुस्सा और चिढ़ मरीजों में कॉमन है। अगर आपके आसपास कोई भी ऐसा मरीज़ है तो उनका सम्मान करिए और उनके अनुसार काम करने की कोशिश करिए।
दुनिया को उनके रहने लायक बनाने में अपना योगदान दीजिए।
ऑटिज्म के कारणों पर जब हमने पड़ताल करनी शुरू की तो हमें कुछ कॉमन कारण मिले।
कई बार ऑटिज्म जेनेटिक हो सकता है। आपके घर में पहले से ही अगर कोई ऑटिज्म का मरीज है तो इस बात के ज्यादा चांसेस हैं कि आपके घर में पैदा हुए किसी बच्चे को भी ये बीमारी झेलनी पड़े।
प्रेगनेंसी के दौरान या बच्चे के जन्म के तुरन्त बाद पर्यावरण भी ऑटिज़्म में भूमिका निभाता है। अगर मां प्रेगनेंसी के दौरान प्रदूषण के माहौल में रहती है तो प्रदूषण के कण अंदर जाने की वजह से बच्चे को नुकसान पहुंच सकता है। उस नुकसान के परिणामों में से एक ऑटिज़्म है। इसके अलावा, कई बार जिनेटिक फैक्टर और पर्यावरणीय कारण मिल जाते हैं। बच्चे में जीन की वजह से अगर थोड़ा बहुत भी ऑटिज़्म का खतरा होता है, तो जन्म के बाद पर्यावरण का हल्का प्रतिकूल माहौल ऑटिज़्म को जन्म दे सकता है और बच्चे में इसके लक्षण दिखाई देने लगते हैं।
अमेरिकी स्वास्थ्य विभाग की ये रिपोर्ट कहती है कि प्रेगनेंसी के दौरान खाई गई दवाइयां भी बच्चों में ऑटिज्म का कारण बन सकती है। इस रिपोर्ट में खासकर एंटीडिप्रेसेंट का जिक्र है।
इसके अलावा प्रेगनेंसी के दौरान शराब या स्मोकिंग भी बच्चों को ऑटिज्म की तरह धकेल सकती है।
अमूमन देखा जाता है | क्या न करें? (What not to do with Autism Patients) 1. आटिज्म के मरीजों के साथ करीब होते हुए उनकी कमज़ोरी का सम्मान करिए। उनसे बात करते वक्त ऐसे तरीके से बात ना करें जैसे आप अपने किसी नॉर्मल दोस्त से बात करते हैं। उन्हें समझ मे आने वाले तरीके से ही बात करिए। 2. पब्लिक प्लेस पर ना उनका मजाक खुद उड़ाएं और ना किसी को मज़ाक करने दें। यह अक्सर ट्रिगर का काम करता है जिससे मरीज़ की परेशानी बढ़ सकती है। 3. उनकी मर्ज़ी के बगैर उन्हें ना छुएं। बच्चों को भी नहीं। उनके पर्सनल स्पेस का सम्मान करें। 4. कोई ज़रूरी नही कि आप आंखों को मिला कर जैसे सबसे बात करते हैं वैसे ही उनसे भी हो सके। आर्टिजम के पेशेंट्स अक्सर आंखें मिलाने से डरते हैं। आपका आंखें।मिलाना उन्हें परेशान करेगा। 5. उन्हें डांटने से,उन पर दबाव बनाने से बचने की।कोशिश करिए। उनकी ज़रूरतें समझिए और उसी अनुसार काम करिए। 6. अगर वे अपने समय और अपनी दिनचर्या को लेकर अड़े हुए हैं तो उसका सम्मान करिए। अपने अनुसार उन्हें चलाने की कोशिश मत कीजिये। |
ऑटिज़्म के लक्षणों में से सबसे बड़ा लक्षण है आत्मविश्वास की कमी। इससे पीड़ित लोग अक्सर किसी से आंख नहीं मिला पाते। इसके साथ ही उन्हें दूसरों के इमोशंस को समझने में भी वक्त लगता है।
ऑटिज्म से पीड़ित लोगों को अक्सर बातचीत करने में मुश्किल होती है। हिचकिचाहट के साथ बोलना,बोलते बोलते चुप हो जाना आटिज्म का ही लक्षण है।
एक ही बात या काम को बार-बार दुहराना भी आटिज्म के लक्षणों में से एक है।
ऑटिज्म के मरीज़ों के साथ यह भी है कि अगर उनके शेड्यूल या रूटीन में थोड़ा सा भी बदलाव हुआ तो वो चिढ़ने लगते हैं।
ऑटिज्म के मरीजों में यह देखा गया है कि वो अगर किसी विषय या चीज़ को पसन्द करेंगे तो अति कर देंगे। और नहीं करेंगे तो फिर आप कितनी भी कोशिश कर लें, वे उसकी ओर ध्यान ही नहीं देंगे। उदाहरण के लिए- जैसे कोई बच्चा मैथ्स में टॉप करे और बाकी सब्जेक्ट्स में फेल हो जाए।
एक ही ढंग से हर बार बात करना, या यूं कहें रोबिटिक तरीके से बात करना भी ऑटिज्म का ही लक्षण है।
ऑटिज्म के मरीजों को सीक्वेंस बहुत पसंद होता है, अमूमन ऐसा देखा गया है। जैसे- चीजों को करीने से सजाना।
चमकदार चीजों से भागना भी ऑटिज़्म के लक्षण में से एक है। आटिज्म से पीड़ित व्यक्ति लाइट की ओर नहीं देख पाता।कई बार उसे सूरज की रौशनी से भी दिक्कत होती है।
ऑटिज्म अब तक ऐसी बीमारी बनी हुई है जिसके जांच के लिए कोई एक टेस्ट निर्धारित नहीं है। डॉक्टर्स अलग अलग तरीके से ऑब्जर्व करके नतीजे पर पहुंचते हैं जैसे –
डॉक्टर्स इस ऐनालिसिस के सहारे ये पता लगाने की कोशिश करते हैं कि क्या बच्चे की ग्रोथ सामान्य तरीके से हो रही है? शरीर के साथ साथ क्या उनका दिमाग भी उसी तरह विकसित हो रहा है? ऐसा वे बच्चों से बातचीत के आधार पर, उनकी आदतें और उनकी हरकतें देखकर जानने की कोशिश करते हैं। यह परीक्षण बच्चों के विकास की गति और उनकी सामाजिक और संचार क्षमता की जांच करता है। डॉक्टर बच्चों से बातचीत करते हैं, उनकी आदतों और व्यवहारों का अवलोकन करते हैं।
इसमें बच्चे के व्यवहार को ध्यान से देखा जाता है जैसे वे दूसरों से कैसे बात कर रहे हैं, क्या उन्हें ऐसा करने में मुश्किल आ रही है, बातचीत के साथ उनका फिजिकल मूवमेंट कैसा है? कभी-कभी डॉक्टर्स बच्चों की रुचि को भी ऐनालाइज कर के नतीजे तक पहुंचते हैं। संवाद करते हैं, उनका शारीरिक संपर्क कैसा है, और वे किन चीजों में रुचि रखते हैं।
कई बार यह परीक्षण मशीनों के सहारे किया जाता है और कई बार बातचीत कर के भी, ताकि यह जाना जा सके कि बच्चे का बौद्धिक विकास किस तरह हो रहा है। और फिर रिजल्ट्स के आधार पर यह तय किया जाता है कि बच्चे को ऑटिज्म है या नहीं?
बड़ों में इस रोग का इलाज़ अमूमन नामुमकिन है। कई बार बच्चों के मामले में इलाज़ में सफलता मिली है। इलाज़ के तरीकों में इन बातों का ध्यान रखना चाहिए-
डॉक्टर प्रभर श्रीवास्तव के अनुसार, यह रोग अगर बच्चों में वक्त रहते आइडेंटिफाई कर लिया जाए तो इलाज़ सम्भव भी हो सकता है। हम देर कर देते हैं इसलिये बच्चों की स्थिति बुरी होती चली जाती है। उनका कहना है कि माँ बाप जल्दी स्वीकार नहीं पाते कि उनके बच्चे को किसी तरह का मानसिक विकार है,इसलिये वे बच्चे को इलाज़ के लिए भी नहीं ले आ पाते।
डॉक्टर्स अमूमन बच्चों में ऑटिज़्म के इलाज़ के लिए एप्लाइड बिहेवियर एनालिसिस (ABA) जैसी थेरेपीज का इस्तेमाल करते हैं। इसमें उनके पैटर्न को देखकर उसी तरह का इलाज दिया जाता है जिससे बच्चों के व्यवहार में परिवर्तन आता है। इसी थेरेपी की तरह स्पीच थेरेपी और ऑक्यूपेशनल थेरेपी जैसी थेरेपीज भी बच्चों से कम्युनिकेशन बनाने में मदद करती है और बच्चे धीरे धीरे अपनी झिझक मिटाते हुए बात करना सीखते हैं।
ऑटिज्म दिमाग से जुड़ी हुई बीमारी है। इसमें कांफिडेंस की कमी एक बड़ा फैक्टर है। इसलिये इसका इलाज इस बात पर बहुत ज़्यादा निर्भर करता है कि मरीज़ का परिवार उसके साथ कैसा व्यवहार कर रहा है।ऑटिज़्म से पीड़ित बच्चों के माता-पिता को बहुत जागरूक रहने की।जरूरत पड़ सकती है क्योंकि उनकी छोटी सी भी ग़लती बच्चे को ट्रिगर कर सकती है।
ऑटिज्म के लक्षण अक्सर जन्म के बाद पहले 2-3 साल में ही दिखने लगते हैं। इसमें बच्चों के अंदर दूसरे से बातचीत करने में समस्या, आंख मिलाने से बचना, जैसे लक्षण दिखाई देते हैं।
ऑटिज्म एक मस्तिष्क संबंधी समस्या है। जिसमें पीड़ित व्यक्ति को सोशल बॉन्ड बनाने, किसी से बात करने में या अपने इमोशन्स को जाहिर करने में कठिनाई होती है।
आटिज्म का अब तक पूरी तरह इलाज नहीं बना, लेकिन थेरेपी और सपोर्ट से पीड़ित व्यक्ति की मदद जरूर की जा सकती है। इसके लिए प्रोफेशनल्स और घरवालों दोनों का साथ जरूरी होता है।
ऑटिज्म चार तरह का हो सकता है। ऑटिस्टिक डिसऑर्डर, आस्पर्जर सिंड्रोम, पवर्टल डेवलपमेंटल डिसऑर्डर (PDD), और डिसइंटेग्रेटिव डिसऑर्डर। ये चारों ऑटिज्म के ही प्रकार हैं लेकिन बीमारी की गंभीरता और लक्षणों के आधार पर इन्हें अलग अलग कैटेगरी में बांटा गया है।
अगर आपको दूसरों से बात करने या अपने इमोशन जाहिर करने में परेशानी होती है या ऐसा लगता है कि आप जो कहना चाहते हैं वो कह नहीं पा रहे तो हो सकता है कि आप ऑटिस्टिक हों। डॉक्टर से मिलकर आपको उचित राय लेने की जरूरत है।
ऑटिस्टिक बच्चे आमतौर पर 2-3 साल की उम्र तक बोलना सीख पाते हैं। लेकिन कई बार ऐसा भी हो सकता है कि ऑटिज्म से पीड़ित बच्चा कभी न बोल पाए।